Thursday, December 28, 2017

आधुनिक कला प्रवृतियों को कसौटी पर कसतीं बिहार की लोककलाएं


सुनील कुमार
पत्रकार एवं कला शोधार्थी

मिथिला चित्रकला, मंजूषा चित्रकला और अन्य सभी हस्तशिल्प परंपराएं समूह की अवधारणा पर आधारित हमारी लोक कला परंपराएं हैं और समाज की रुचिकल्पना और संघर्ष की अभिव्यक्ति के सबसे पुराने माध्यम भी। इन अभिव्यक्तियों का शिल्प और उसका स्वरूप समय के साथ-साथ बदलता रहा है। बदलाव के इस क्रम में कई बार यह प्रतीत होता है कि हमारी लोककलाओं की धार कुंद हो रही है, लेकिन यह लोक ही है, जो अपनी कला-संस्कृति की रक्षा हेतु तत्पर रहता है, बशर्ते उन्हें उचित प्रोत्साहन मिले, सहयोग मिले।

समाज की परंपरागत, सामाजिक, धार्मिक और सांस्‍कृतिक गतिशीलताएं उसकी लोक-कलाओं और हस्त-शिल्पों के जरिए अभिव्‍यक्‍ति होती हैं। यह अभिव्यक्ति अपने विविध माध्यमों में देश के अन्य प्रदेशों के मुकाबले बिहार में ज्यादा मुखर दिखती है। माध्यम चाहे लोक-चित्रों का हो, लोक-नृत्य-संगीत का हो या लोक-नाट्य का हो। अभिव्यक्ति के इन माध्यमों में बिहार की लोक-चित्रकला और हस्तशिल्प की अपनी विशिष्ट पहचान है। खासकर मिथिला व मिनिएचर चित्रकला और प्रस्तर के बर्तनों, बांस और लकड़ी पर धातु की जरी के हस्त-शिल्प को लेकर। बिहार की यही विशिष्ट पहचान एक बार फिर प्रत्यक्ष हुई है कला संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार, पटना तथा बिहार ललित कला अकादमी, पटना के संयुक्त तत्वाधान में कला मंगल श्रृंखला के अंतर्गत आयोजित बिहार के आठ वरिष्ठ कलाकारों के कलाकृतियों की समूह प्रदर्शनी में, जिसमें मिथिला और मंजूषा चित्रों, वेणु शिल्प और क्रोशिया शिल्प की ज्वेलरी को प्रदर्शित किया गया है।

बात सबसे पहले मिथिला चित्रों की। अपने अन्वेषण के समय से लेकर अबतक लगभग सत्तर से भी ज्यादा बसंत देख चुकी मिथिला चित्रकला अपने रूपाकारों और विषय-वस्तुओं की लिहाज से कितनी वयस्क हुई है, इस पर वाद-विवाद की पूरी गुंजाइश है। लेकिन, इसमें कोई अतिरंजना नहीं है कि इन बसंतों के बीच उसने रशीदपुर, जितवारपुर, रांटी और मधुबनी के रास्ते जापान, जर्मनी और अमेरिका तक का सफर तय किया है। गंगा देवी, शांति देवी, जगदंबा देवी, यशोदा देवी, महासुंदरी देवी, बऊआ देवी, गोदावरी दत्त, चंद्रकला देवी, चानो देवी और शांति देवी सरीखी चित्रकारों की कल्पनाशीलता ने उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्रदान की।

कालांतर में इसके दो परिणाम स्पष्ट हुए। पहला, मिथिला चित्रकला का उत्पाद में रूपांतरण और दूसरा, अन्य परंपरागत, लोक कलाओं-शिल्पों का नेपथ्य गमन। मिथिला चित्रकला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिली ख्याति ने मिथिलांचल में कला केंद्र के रूप में उभरे जितवारपुर और उससे कुछ कोस दूर सिमरी को कलाकृतियों के नकल का उत्पादन करने वाले कारखाने में तब्दील कर दिया। उद्देश्य सिर्फ एक था, अर्थोत्पादन। यह परिपाटी जितनी गोदना शैली में मिलती है, उतनी ही कचनी और भरनी शैली में भी। लेकिन, इस सबके बीच कुछ मूर्धन्य वरिष्ठ कलाकारों ने मौलिक काम भी किए। बढ़ते बाजार और मिथिला के अग्रगणी चित्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय कला अनुभवों के बीच मिथिला चित्रकला में समकालीन तत्वों व तकनीकी का प्रवेश हुआ और किंचित प्रभावों से विषयों की गूढ़ता भी प्रत्यक्ष हुई। इस चित्रकला के पारंपरिक विषय थे सीता-राम विवाह, राधा-कृष्ण रास, शिव-पार्वती, पौराणिक आख्यान और कोहबर लेखन। इनकी बहुलताओं के बीच गंगा देवी मिथिलांचल के परिवेश को, मोटर गाड़ियों, रेलगाड़ियों, हवाई जहाजों और आपदाओं को अपने चित्रों में दर्ज कर रही थीं। रोलर कोस्टर विदेश से मिथिला के चित्रों पर उतरे थे। गोदावरी दत्त पारंपरिक विषयों में गहरे अन्वेषण कर रही थीं। जापान में कला के नए माध्यमों व तकनीकी से लैस गोदावरी दत्त रेखांकन की सूक्ष्म बारीकियों के साथ शिव धनुष, त्रिशूल और चक्र के प्रभावशाली वृहदाकार चित्र बना रही थीं। इन नवींन प्रवृतियों ने परंपारगत चित्रकारी और उसके विषयों पर कितना प्रभाव डाला, इस पर शोध की जा सकती है, लेकिन उनके इन प्रयोगों ने मिथिला चित्रकला में विषयों की पारंपरिकता को लेकर बंद कपाट खोले और समकालीन मिथिला चित्रकला का पथ प्रशस्त किया।

सीमित स्तर पर ही सही, उन नवीन प्रवृतियों के प्रभाव का दायरा और उनमें प्रयोगधर्मिता की प्रवृति में तेजी दिखती है, बावजूद इसके कि विषयों के स्तर पर पारंपरिकता का प्रभाव आज भी ज्यादा है। स्वभाविक रूप से यह प्रभाव बबीता कर्ण और नीलम कर्ण के चित्रों में देखा जा सकता है। दोनों ही मिथिला चित्रकला की कलाकार हैं। बबीता मधुबनी शहर से सटे गांव रांटी की हैं। उन्हें अपनी दादी और मां से चित्रकारी सीखने का प्रोत्साहन मिला और विवाह पश्चात् उनकी कला महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के प्रभाव में आई। कचनी और भरनी दोनों ही शैलियों में बने उनके चित्रों में राधा-कृष्ण रास, सीता-राम विवाह और रामायण से जुड़े विविध प्रसंगों, कोहबर एवं मिथिलांचल की लोक संस्कृतियों का सुंदर संयोजन मिलता है।

मिथिलांचल के राजनगर के पास के एक गांव हरिपट्टी की नीलम कर्ण पारंपरिक विषयों को चित्रित करती हैं, लेकिन प्रदर्शनी में शामिल उनके चित्रों में से एक चित्र सहसा ध्यान आकर्षित करता है। कारागार में भगवान कृष्ण के जन्म से जुड़ी मिथकीय कथा पर उन्होंने एपिसोडिक अंदाज में चार दृश्यों का संयोजन बनाया है। पहले दृश्य में भगवान विष्णु, दुराचारी राजा कंस की बहन देवकी और उसके बहनोई वसुदेव को दर्शन दे रहे हैं। वहीं पास में कृष्णावतार के प्रभाव में पहरेदार निंद्रा में हैं। तीसरा दृश्य वसुदेव द्वारा मौनी में कृष्ण को रखकर यमुना पार मथुरा पहुंचाने का है, जिसमें शेषनाग भीषण बारिश से बाल गोपाल की रक्षा हेतु अपने फन से छत्र बनाए हैं और अंतिम दृश्य है वसुदेव और नंद के बीच साक्षात्कार का, जब वसुदेव कृष्ण को नंद के हाथों में सौंपते हैं और बाल स्वरूपा योगमाया को अपने अंक में लेते हैं। इन दृश्यों में देवकी के ठीक ऊपर गहरे रंगों के छह धब्बों को स्पष्ट देखा जा सकता है। यह कारागार के भीतर कंस द्वारा देवकी के छह पुत्रों की हत्या की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है और यह प्रतीकात्मकता सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करती है। इस चित्र की दूसरी बड़ी विशेषता इसकी प्रस्तुति को लेकर है। बिहार की ही मंजूषा चित्रकला को पहला कॉमिकल पेटिंग कहा जाता है। नीलम की यह कलाकृति भी कॉमिकल है।

इस प्रदर्शनी में तीन मंजूषा चित्रकार शामिल हैं। मंजूषा चित्रकला इन दिनों मिथिला चित्रकला के साथ लगभग समान रूप से चर्चा में है। कुछ ही दिनों पहले इसे उद्योग मंत्रालय का साथ मिला है। मिथिला चित्रकला की ही तरह रंगों के प्रयोग और आकृतियों में सदृश्यता लिए मंजूषा कला की चर्चा भी सबसे पहले डब्ल्यू जी. आर्चर ने की थी, जब वो 1940 के आसपास अंग प्रदेश में थे। उन्होंने मंजूषा के छाया चित्र लंदन भिजवाए थे और मंजूषा चित्रों के बारे में लिखा था कि अंग जनपद में एक ऐसी कला रची जाती है, जिसमें सांप बनते हैं। लंदन म्यूजियम के इंडिया हाउस में मंजूषा छायाचित्रों के संग्रहित होने की बात आज भी कही और सुनी जाती है। ये वही आर्चर हैं, जिन्होंने मधुबनी कला की भी पहचान की थी और लगभग तीन दशक बाद यह कला गांव की दिवालों से उठकर विदेश की गैलरियों में जा पहुंची थी, लेकिन मंजूषा कला आज भी लगभग वहीं है, अपनी मिट्टी और अपने परिवेश की खुशबू के साथ।

बिहुला विषहरी की लोकगाथा पर आधारित मंजूषा चित्रकला में मिथिला चित्रकला के ठीक उलट चर्चित नामों का अभाव है। मंजूषा की सबसे प्रसिद्ध कलाकार चंपानगर के माली परिवार के रामलाल मालाकार की पत्नी चक्रवर्ती देवी थीं, जो मूलत: पश्चिम बंगाल से थीं। चक्रवर्ती देवी के सतत प्रयासों से मंजूषा कला की पहचान बनी। उनके साथ मोहद्दीनगर की निर्मला देवी भी चित्रकारी करती थीं। चंपानगर दोनों की ही साझा जमीन थी, लेकिन आधुनिकता की बयार में झूमते भागलपुर शहर को अपनी कला से संवाद करने की फुर्सत कहां थी। भागलपुर के पत्रकार-साहित्यकार ज्योतिषचंद्र शर्मा कहते हैं,  लगभग इसी दौर में निर्मला देवी के सुपुत्र मनोज पंडित ने अंग प्रदेश को मंजूषा चित्रकला से परिचित कराने का जिम्मा उठाया। कुछ समाजसेवियों के साथ उन्होंने भागलपुर और उसके आसपास के सैंकड़ों गांवों को मंजूषा से अवगत कराया, चित्रकला के कैंप किए और आज परिणाम सामने है। यह कला लोकप्रिय हो रही है

मनोज पंडित पूरे अंगप्रदेश में मंजूषा गुरु के नाम से ख्यातिलब्ध हैं। चित्रों में अनगढ़ता और उसमें सुगढ़ता का जो रूप मिथिला चित्रकला की दो नामचीन चित्रकार महासुंदरी देवी और गंगादेवी में मिलता है, उसकी झलक आप चक्रवर्ती देवी और मनोज पंडित के चित्रों में स्पष्ट देख सकते हैं। मनोज पंडित के चित्रों में पारंपरिक मंजूषा कला और समकालीन मंजूषा कला की विशेषताएं समान रूप से दिखती हैं। मंजूषा चित्रकला के विकास और विस्तार हेतु उन्होंने पारंपरिक ज्यामिती आकार की खूबियों के साथ कुछ नियम बनाए और उसका कड़ाई से पालन किया, करवाया भी। इसे आप उनके चित्रों के ज्यामितीय बॉर्डर और तमाम आकृतियों में स्पष्टत: देख सकते हैं। इस चित्र शैली में नदी या समुद्र के प्रतीक के रूप में लहरीली लाइनों और बेलपत्र का प्रयोग किया जाता है। आकृतियां अंग्रेजी की एक्स की तरह दिखती हैं, जिनमें पैरों और मुख की दिशा एक ही होती है। चित्रकार को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके चित्रों के किरदार गजारोही हैं या अश्वारोही, किरदार खड़े ही दिखाई देंगे। रंगों के स्तर पर केवल मूल रंगों का प्रयोग मंजूषा चित्रकला की विशेषता है। काले रंग का प्रयोग वर्जित है, हालांकि इस पर विवाद भी है। ये तत्व मनोज के चित्रों में स्पष्ट हैं, जिनके किरदार उन्होंने बिहुला-विषहरी की लोकगाथा से उठाए हैं, चाहे वह चांदो सौदागर हो, विषहरी हो या बाला बिहुला।

मंजूषा कलाकर नीलम कर्ण ने संस्कार संबंधी दृश्यों की प्रधानता वाले चित्र बनाए हैं। हालांकि उनके किरदार भी बिहुला विषहरी की लोकगाथा के हैं। उनके चित्रों में चरित्रों की प्रधानता मिलती है, चाहे वह बिहुला की शादी का दृश्य हो या उसकी डोली का। विषहरी के मानवीय आकृतियों को उन्होंने अपने चित्रों में सूक्ष्मता के साथ उकेरा है। अक्सर कलाप्रेमियों के समक्ष यह भ्रम की स्थिति उत्पन होती है कि वह मंजूषा के किरदारों की पहचान करे कैसे। इसके लिए जरूरी है कि हम उनकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति को जाने-समझें। यथा इन चित्रों में आप पांचों बहन विषहरी की पहचान अदिति विषहरी के हाथ में उगते सूरज और सिर पर नाग, मैना विषहरी के एक हाथ में मैना और सिर पर नाग, जया विषहरी के एक हाथ में तीर-धनुष और सिर पर नाग, पद्मा विषहरी के एक हाथ में कमल और सिर पर नाग की आकृति को देखकर कर सकते हैं। इसी तरह चांदो सौदागर की उसके मस्तक के चंद्राकार तिलक या उस पर बनी चांद की आकृति और विषहरी की पहचान उसके एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में नाग के जरिए की जाती है। अन्य प्रतीकों में बिहुला के लिए खुले बाल, मंजूषा और बाला के पैर के पास नाग आदि का चित्रण शामिल है। मंजूषा चित्रों में शहरों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी उसकी एक विशेषता है। चंपानगरी के लिए चंपा के फूल और उज्जैनी के लिए चंदन वृक्ष पर कागा को प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है। मंजूषा के ज्यादातर चित्रों में सर्पाकृतियों के साथ झांप या कलश की उपस्थिति मिलती है। प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए किसी भी किरदार की इतनी स्पष्ट पहचान शायद ही किसी चित्र परंपरा में मिलती हो।

मंजूषा चित्रकला में मनोज पंडित के साथ एक और नाम प्रमुखता से आता है, उलुपी कुमारी का। भागलपुर के बाल भारती विद्यालय में पेशे से शिक्षक रहीं उलुपी कुमारी 2009 में मंजूषा कला के प्रति सचेत होती हैं। उलुपी मनोज पंडित की कार्यशालाओं में मंजूषा चित्र बनाना सीखती हैं और फिर मंजूषा चित्र बनाने के प्रशिक्षण का कार्य शुरू करती हैं। मंजूषा कला के पुनर्जीवन में अगर मनोज पंडित का योगदान बहुमूल्य है, तो ग्रामीण महिलाओं के साथ मिलकर उसे व्यावसायिक रूप देने में उलुपी का योगदान उल्लेखनीय है। उलुपी ने ग्रामीण महिलाओं को साड़ी, चादर, पेंटिंग, रूमाल और दूसरी जगहों पर इस कला के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया ताकि महिलाएं स्वावलंबी बन सकें। उनका मानना है कि मंजूषा चित्रकला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान तभी मिलेगी, जब इसे रोजगार से जोड़ा जाए।

कला मंडल श्रृंखला के तहत आयोजित इस प्रदर्शनी में बिहार के हस्त-शिल्पों वेणु और क्रोशिया को भी स्थान दिया है। वेणु शिल्प और लकड़ी में धातु की जरी बिहार के प्रमुख शिल्पों में शामिल रहा है, लेकिन समय के साथ-साथ उसकी चमक फीकी पड़ी। इस हस्त-शिल्प को लोकप्रिय बनाने हेतु किए गए सरकारी प्रयासों और उपायों की वजह से वेणु शिल्प आज फिर चर्चा में है और उसके शिल्पकारों की संख्या बढ़ रही है। बिहार में वेणु शिल्प को लेकर दो नाम प्रमुखता से उभरते हैं। समस्तीपुर के चांदपुर गांव के शिल्पी बालेश्वर राम और उनके सुपुत्र रामचंद्र राम का। बालेश्वर राम वेणु शिल्प के वरिष्ठतम कलाकार हैं, जिन्होंने वेणु के साथ कई प्रयोग किए और कई आदमकद वेणु प्रतिमाओं का निर्माण किया। अपने सुपुत्र के सहयोग से उन्होंने विद्यादात्री, नटराज, गजराज, विष्णु, दुर्गा, बुद्ध आदि की वेणु प्रतिमाएं गढ़ीं, जबकि रामचंद्र राम की खूबसूरत कलाकृतियां वेणुशिल्प की सीमाओं के पार जाती दिखाई पड़ती हैं। उनकी एक कलाकृति में पेड़ के तने पर रखे चिड़िया के एक घोंसले के समीप सांप को दर्शाया गया है, जो चिड़िया के बच्चों को अपना ग्रास बनाने पर आतुर है। चिड़िया की आकृति बगुले से मेल खाती है। वह बगुला सांप का मुकाबला कर रही है। उसी पेड़ की जड़ में एक शिकारी बगुले की तरफ तीर ताने हुए है। वेणु शिल्प में इस तरह के प्रयोग कम ही देखने को मिलते हैं। उनकी इन्हीं कलात्मकताओं की वजह से उन्हें सीता देवी कला पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।


प्रदर्शनी में हस्तशिल्प की तीसरी प्रमुख कलाकर हैं विभा श्रीवास्तव। विभा क्रोशिया शिल्प की कलाकार हैं। बचपन में जब उनके पास क्रूश नहीं होते थे, तब वह लोहे के तारों से क्रूश बनाकर बुनाई करती थीं। समय बदला, हाथ में क्रूश आया और उन्होंने अपनी कल्पनाओं को नई उड़ान दी। क्रोशिया में चल रहे, उनके प्रयोगों के बीच 2008 में उन्होंने क्रोशिया ज्वेलरी बनाई, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई। आज क्रोशिया ज्वेलरी ही उनकी पहचान है। उनकी इसी कला की वजह से पटना में उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, खादी ग्रामोद्योग भवन और निफ्ट के क्राफ्ट बाजार ने उन्हें सराहा और प्रोत्साहित किया और आज स्थिति यह है कि उनकी कला की मांग देश भर में ही नहीं, विदेशों तक है।

बहरहाल, मिथिला चित्रकला, मंजूषा चित्रकला और अन्य सभी हस्तशिल्प परंपराएं समूह की अवधारणा पर आधारित हमारी लोक कला परंपराएं हैं और समाज की रुचि, कल्पना और संघर्ष की अभिव्यक्ति के सबसे पुराने माध्यम भी। इसमें केवल आमजन को प्रभावी स्थान नहीं मिला है, अपितु जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, वनस्पतियां, मौसम, पेड़-पौधे सबका समान महत्व है। इन्हीं के माध्यम से यह समाज खुद को, अपने काल को, अपनी जिजीविषा को, संघर्षों को और अपनी आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को व्यक्त करता है। इन अभिव्यक्तियों का शिल्प और उसका स्वरूप समय के साथ-साथ बदलता रहा है। बदलाव के इस क्रम में कई बार यह प्रतीत होता है कि हमारी लोककलाओं की धार कुंद हो रही है, लेकिन यह लोक ही है, जो अपनी कला-संस्कृति की रक्षा हेतु तत्पर रहता है, बशर्ते उन्हें उचित प्रोत्साहन मिले, सहयोग मिले और उसी की एक कड़ी है कला मंगल श्रृंखला के तहत आयोजित लोक कला और हस्तशिल्प के कलाकारों की यह समूह प्रदर्शनी। 

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