Tuesday, December 23, 2014

कोच्चि मुजरिस बिनाले का विरोध थोथी राजनीति


रविंद्र दास, कलाकार एवं कला समीक्षक


सुपर इगो, भीषण व्यक्तिवाद, अनुशासनहीनता, अराजकता, परनिंदासुख, अविश्वास की बीमारी ज्यादातर कलाकारों-साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों में पायी जाती है। यही वजह है कि वृहद सामासिक उद्देश्य से उन्हें एकजुट करने की कोशिश अक्सर विफल हो जाती है। यह संदर्भ कोच्चि-मुजिरिस बिनाले के आयोजन पर भी लागू होता है। केरल के स्थानीय कलाकारों के द्वारा बिनाले की मुखालफत क्यों की जा रही है और आयोजन को मायाजाल क्यों कहा जा रहा है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।

कोच्चि-मुजिरिस बिनाले की शुरुआत केरल सरकार के सौजन्य से वहां के स्थानीय कलाकारों और कला को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से की गयी थी। इस पर बिनाले का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि इससे स्थानीय कलाकारों को ज्यादा लाभ नहीं पहुंचा। सवाल यह है कि क्या किसी एक आयोजन से उस विधा से जुड़े सभी लोगों को संतुष्ट किया जा सकता है?

अक्सर आयोजनकर्ता चाहे वह कोई संस्था हो, अकादमी हो राज्य की सरकार हो, अपने कला आयोजनों में अपने स्थानीय कलाकारों को प्रमोट करना चाहता है। आयोजन दोयम दर्जे का न हो, शायद इसी वजह से एक प्रोफेशनल क्यूरेटर की तलाश की जाती है जो आयोजन को सफल बनाने की कोशिश करता है। जाहिर है सफल आयोजन के लिए मानक भी तय किये जाते हैं और उन मानकों पर खरा उतरने वाले कलाकारों को ही जगह मिलती होगी। ऐसे में कलाकारों का आयोजन से वंचित रह जाना संभव है।

इसके ठीक उलट, कला आयोजनों में स्थानीय कलाकार ज्यादा से ज्यादा अपनी भागीदारी और लाभ सुनिश्चित करना चाहते हैं और जब उनकी अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, तब हंगामा मचाते हैं। अन्यथा जिस कोच्चि-मुजिरिस बिनाले की चर्चा देशभर में ही नहीं, विदेशों में भी खूब हो रही है, उसकी मुखालफत क्यों?

यह भी संभव है कि कला दीर्घाओं की घोर व्यावसायिक प्रकृति के दवाब में भी आवाज मुखर हो रही हो। लेकिन, तमाम विरोधों और आलोचनाओं के बावजूद कोच्चि-मुजिरिस बिनाले के आयोजक कला दीर्घाओं और कलाकारों को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि कला कर्म मात्र वही नहीं हैं जो वह कर रहे हैं, बल्कि कला के अन्य रूप भी हैं।

तात्पर्य यह कि जिस बिनाले ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया हो, उससे स्थानीय कलाकारों का भला नहीं होगा, यह कहना गलत नहीं होगा। जरा गौर कीजिए कि, बिनाले का विरोध कर रहे कलाकारों ने तब चुप्पी क्यों साध रखी थी जब भारत सरकार की ललित कला अकादमी द्वारा त्रिनाले और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होने वाले अन्य कला मेलों को बंद कर दिया गया था।


जाहिर है, बिनाले के सफल आयोजन ने त्रिनाले को जीवित करने की गुंजाइश बनाई है। लिहाजा, विरोध की वजह यह नहीं होना चाहिए कि विरोध तो करना ही है, वामपंथी साहित्यकारों की तरह।